Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने मुँह निकालकर कहा, “तो तुम मेरे बॉडी-गार्ड होकर चलो लालाजी, तुम्हारे साथ बातचीत करती हुई चलूँगी।” यह कहकर उसने साधुजी को अपनी गाड़ी के पास बुला लिया। सामने ही मैं था। बीच-बीच में गाड़ी, बैल और गाड़ीवानों के सम्मिलित उपद्रव से उनकी बातचीत के किसी-किसी अंश से वंचित होने पर भी अधिकांश सुनता हुआ चला।

राजलक्ष्मी ने कहा, “घर तुम्हारा इधर नहीं है, हमारे ही देश की तरफ है, सो तो मैं तुम्हारी बात सुनकर ही समझ गयी थी, मगर आज कहाँ चले हो, सच्ची-सच्ची बताना भाई।”

साधु ने कहा, “गोपालपुर।”

राजलक्ष्मी ने पूछा, “हमारी गंगामाटी से वह कितनी दूर है?”

साधु ने जवाब दिया, “आपकी गंगामाटी भी मुझे नहीं मालूम, और अपने गोपालपुर से भी वाकिफ नहीं; लेकिन हाँ, होंगे दोनों पास ही पास। कम-से-कम सुना तो ऐसा ही है।”

“तो फिर इतनी रात में कैसे तो गाँव पहिचानोगे, और कैसे उनका घर ढूँढ़ निकालोगे जिनके यहाँ जा रहे हो?”

साधुजी ने जरा हँसकर कहा, “गाँव पहिचानने में दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि रास्ते पर ही शायद एक सूखा तालाब है, उसके दक्खिन कोस-भर चलने से ही वह मिल जायेगा। और घर ढूँढ़ने की तो तकलीफ उठानी ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि सभी अनजान हैं। मगर हाँ, पेड़ के नीचे तो जगह मिल ही जायेगी, इसकी पूरी उम्मीद है।”

राजलक्ष्मी ने व्याकुल होकर कहा, “ऐसे जाड़े की रात में पेड़ तले? इस जरा-से कम्बल पर भरोसा रखके? इसे मैं हरगिज बरदाश्त नहीं कर सकती, समझे लालाजी!”

उसके उद्वेग ने मानो मुझ तक को चोट पहुँचाई। साधु कुछ देर चुप रहकर धीरे-से बोले, “मगर हम लोगों के तो घर-द्वार नहीं है, हम लोग तो पेड़ तले ही रहा करते हैं, जीजी।”

अबकी बार राजलक्ष्मी भी क्षण-भर मौन रहकर बोली, “सो जीजी की ऑंखों के सामने नहीं। रात के वक्त भाई को मैं निराश्रय नहीं छोड़ सकती। आज मेरे साथ चलो, कल मैं खुद ही तैयारी करके भेज दूँगी।”

साधु चुप रहे। राजलक्ष्मी ने रतन को बुलाकर कह दिया कि बिना उनसे पूछे गाड़ी की कोई चीज स्थानान्तरित न की जाय। अर्थात् सन्यासी महाराज का बॉक्स आज रात-भर के लिए रोक रक्खा गया।

मैंने कहा, “तो फिर क्यों झूठमूठ को ठण्ड में तकलीफ उठा रहे हो भाई साहब, आ जाओ न मेरी गाड़ी में।”

साधु ने जरा कुछ सोचकर कहा, “अभी रहने दो। जीजी के साथ ज़रा बातचीत करता हुआ चल रहा हूँ।”

मैंने भी सोचा कि ठीक है और ताड़ गया कि अभी साधु बाबा के मन में नये सम्बन्ध को अस्वीकार करने का द्वन्द्व चल रहा है। मगर फिर भी, अन्त तक बचाव न हो सका। सहसा, जबकि उन्होंने अंगीकार कर ही लिया, तब बार-बार मेरे मन में आने लगा कि जरा सावधान करके उनसे कह दूँ, 'महाराज, भाग जाते तो अच्छा होता। अन्त में कहीं मेरी-सी दशा न हो!'

लेकिन, मैं चुप ही रहा।

दोनों की बातचीत धड़ल्ले से होने लगी। बैलगाड़ी के झकझोरों और ऊँघाई के झोंकों में, बीच-बीच में उनकी बातचीत का सूत्र खोते रहने पर भी, कल्पना की सहायता से उसे पूरा करते हुए रास्ता तय करने में मेरा समय भी बुरा नहीं बीता।

शायद मैं जरा तन्द्रा-मग्न हो गया, सहसा सुना, पूछा जा रहा है, “क्यों आनन्द, तुम्हारे उस बॉक्स में क्या-क्या है, भाई?”

उत्तर मिला, “कुछ किताबें और दवा-दारू है जीजी।”

“दवा-दारू क्यों? तुम क्या डॉक्टर हो?”

“मैं तो सन्यासी हूँ। अच्छा, आपने क्या सुना नहीं जीजी, आपके उस तरफ हैजा फैल रहा है?”

“नहीं तो। यह बात तो हमारे गुमाश्ते ने नहीं जताई। अच्छा, लालाजी, तुम हैजे को आराम कर सकते हो?”

साधुजी ने जरा मौन रहकर कहा, “आराम करने के मालिक तो हम लोग नहीं दीदी, हम लोग तो सिर्फ दवा देकर कोशिश कर सकते हैं। मगर इसकी भी जरूरत है, यह भी उन्हीं का आदेश है।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “सन्यासी भी दवा दिया करते हैं, ठीक है, मगर सिर्फ दवा देने ही के लिए सन्यासी नहीं बना जाता। अच्छा आनन्द, तुम क्या सिर्फ इसीलिए सन्यासी हुए हो भइया?”

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